जीवन रूपी रणभूमि में..क्या मैं घुटने टेक अाऊं..
धर कटा के अपना..शीश झुकाकर..
क्या रंग हार का लेप अाऊं..
या उठा खड्ग मैं इन हाथों में..
दिखला दूं क्या इस दुनिया को..
दुष्कर्म से परिपूर्ण ये श्रृष्टि..
फिर..
एकबार इन्हें क्या चेत अाऊं..
जीवन रूपी रणभूमि में..क्या मैं घुटने टेक अाऊं..
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